Sunday, November 9, 2014

ये गुरू लोग और खूँटों से बँधा मोक्ष

ये गुरू लोग और खूँटों से बँधा मोक्ष

कल दो सम्भ्रांत महिलाओं से मुलाकात हुई। वे महिलाएँ अपने गुरू जी के दिल्ली आगमन पर लोगों को आमंत्रित करने में लगी हुईं थी। चर्चा के दौरान उन्होंने अपने दो गुरूओं के विषय में बताया। जो बड़े वाले गुरू हैं उनके बारे में बताया गया कि वे अनादि और अनन्त हैं। उनका ना जन्म हुआ है ना ही कभी मरण होगा। और जो छोटे गुरू हैं उनको बड़े गुरू द्वारा अपने संदेश फैलाने के लिये एक सुपात्र के रूप में चुना गया है। जब उनसे पूछा गया कि क्या स्वयं उन्होंने बड़े वाले अनादि और अनन्त गुरू को देखा है या किसी ऐसे व्यक्ति से मिली हैं जिन्होंने उन गुरू को अपनी आँखों से देखा हो। उनका उत्तर नकारात्मक था। उन महिलाओं ने बताया कि उनको बहुत लोगों ने महसूस किया है। उन गुरू को केवल महसूस किया जा सकता है वह भी उन लोगों के द्वारा जो गुरू के सत्सँग में शुद्ध हो गये हों।

1935 के बाद से वियना सर्किल और लॉजिकल पॉज़िटीविस्ट्स दार्शनिकों ने कहा था कि दर्शन की अनेक समस्याओं की हमारी भाषा के अशुद्ध प्रयोग से पैदा होती हैं अतः भाषा में केवल वही बातें कही जानी चाहिएँ जिनके अर्थ सब लोगों की समझ में एक जैसे आएँ। इससे अनेक दार्शनिक भ्रान्तियाँ दूर होंगी। वास्तव में इन्हीं दार्शनिक भ्रान्तियों को हम लोगों दार्शनिक समस्याओं का नाम दे दिया है। जबकि ये मात्र भाषा की अशुद्धियाँ है।

ऐसे किसी गुरू के अस्तित्व को कैसे साबित किया जा सकता है जो जीवित है, सशरीर है परन्तु दिखाई नहीं देता है? उस गुरू को देखने के लिये उसी विशिष्ट सम्प्रदाय के लोगों से सत्सँग लेना पड़ेगा और कितना सत्सँग गुरू को देख पाने के लिये पर्याप्त होगा – यह बात भी उसी सम्प्रदाय के लोग तय करेंगे।

यह कैसी शर्त है? यह कैसा सत्य है? जो इतना बाधित है। जिस सत्य को सभी लोग देख भी नहीं सकते वह यूनिवर्सल (सार्वभौम) होने का दावा कैसे कर सकता है? इन टुकड़ों में बँटे हुए सत्यों को लेकर कोई साधक कैसे एक यूनिवर्सल सत्य तक पहुँच सकता है? हर पाँच कोस पर एक गुरू का ठीया स्थापित है। हरेक गुरू – शिष्य – मँडल के लोग अपने गुरू से बाहर किसी अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। कई बार तो ये शिष्य – गण बिल्कुल कूप मँडूपों की तरह बर्ताव करते हैं।

किसान के घर में कई खूँटे होते हैं। एक खूँटा बैल को चारा खिलाने वाले स्थान पर होता है। एक अन्य खूँटा चारा खा चुकने के बाद बैल के बैठने के लिये होता है ताकि वह आराम से जुगाली कर सके। अन्य खूँटे बैल को सरदी या गरमी से बचाने के लिये बरामदे के अन्दर या बाहर होते हैं।

सभी गुरू केवल अपने मत के द्वारा मुक्ति का संदेश देते हैं। अपने से बाहर अन्य सभी विचारों को ये गुरू लोग खारिज करते हैं। किसी भी बाहरी विचार को ये लोग गंदा याअपवित्र तक कह देते हैं। ये लोगों को अपने से बाँधते हैं और दूसरों से वर्जित करते हैं। ये गुरू धार्मिक खूँटों की तरह व्यवहार करते हैं। ये कहते हैं कि इनके साथ बँधकर ही आप मुक्त हो सकते हैं, मोक्ष पा सकते हैं।

विडम्बना यह है कि बहुत बड़ी संख्या में लोग स्वेच्छापूर्वक इन खूँटों के साथ बँध गये हैं और खूँटों से बँधा हुआ मोक्ष पाने के लिये लालायित हैं।

शिव कहते हैं:
न मे बन्धो न मोक्षो मे भीतस्यैता विभीषिकाः ।
प्रतिबिम्बमिदं बुद्धेर्जलेष्विच विवस्ततः ।। (वि.भै. का. 135)

न तो बन्धन कुछ होता है और न ही मोक्ष कुछ होता है। ये तो डरे हुए लोगों को और डराने वाले साधन हैं। यह संसार बुद्धि का वैसे ही प्रतिबिम्ब है जैसे जल में सूर्य का होता है।

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Thursday, October 23, 2014

रोग, भोग और योग के आढ़तिये


रोग, भोग और योग के आढ़तिये


  • चारों तरफ़ गुरुओं की धूम मची है। हर विपणक के यहाँ योग से सम्बन्धित सामग्री बिक रही है। चारों ओर आढ़त का बाजार लगा है। लोग योग बेच रहे हैं  कुछ अन्य लोग योग खरीद रहे हैं। कोई आसन बेच रहा है, कोई अच्छे वाले आसन ईजाद कर रहा है। कोई ध्यान के सस्ते दाम लगा रहा है। किसी दुकान पर कुण्डलिनी उठवाई जा रही है।
  • कुछ लोग प्राणायाम बेच रहे हैं। बता रहे हैं कि माल अच्छा है, साथ में गारन्टी दे रहे हैं कि मोटापा कम कर देगा। इस ध्यान- योग के बाजार में कुछ दुकानों पर एक्सेसरीज़ भी बिक रही है।
  • ज्यादा भीड़ उन दुकानों पर है जहाँ एक्सेसरीज़ या तो हर्बल है या फिर उन्हें आयुर्वेद में से कहीं से आया बताया जा रहा है। पूरे बाजार  में चहल पहल है। चतुर सुजान, उत्तम वस्त्र पहनकर दुकानों के काउन्टर पर विराजे हुए हैं। मुद्राओं को रेशमी थैलियों में बन्द करके नीचे सरका रहे हैं।
  • जब योगसूत्र रचा गया था । पातंजलि के सामने कैलोरी बर्न की समस्या नहीं थी जबकि आज की मुख्य समस्या ही कैलोरी बर्न की है। पातंजलि के साधक के सामने कुण्ठा और आत्मरोध की वह घातक स्थिति नहीं थी जो आज के मनुष्य के सामने बॉस की डांट, बच्चों के एडमिशन, पुलिस की हेकड़ी, काम के दबाव, गलाकाट कम्पीटीशन आदि ने पैदा कर दी है। आज एल्कोहलिकों की तर्ज़ पर वर्कोहलिक पैदा हो रहे हैं। ये सब पातंजलि और योगसूत्र के लिए अज्ञात थीं अतः योगसूत्र के भीतर इनका निदान भी संभव नहीं है।


रोग, भोग और योग के आढ़तिये

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Sunday, January 19, 2014

चमत्कार - Miracles

चमत्कार - Miralces

चमत्कार आपके देखने की वह अवस्था है जब आप वस्तुओं और विधियों को इस रूप में देखते हैं कि उनके भीतर के सम्बन्ध को नहीं देख पाते हैं।

इस अवस्था में आप वस्तुओं को देख पाते हैं, परन्तु उन विधियों को नहीं देख पाते हैं जिन विधियों से वे वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यही मानसिक चकराव चमत्कार है। यह हमेशा देखने वाले की आँख में होता है। वही एक वस्तु या विधि किसी एक व्यक्ति के लिये चमत्कार हो सकती है जबकि किसी दूसरे के लिये जो उसके पीछे के परिदृश्य को देख समझ पा रहा है वह वस्तु चमत्कार नहीं हो सकती।

किसी एक व्यक्ति के लिये रेडियो चमत्कार हो सकता है। एक ऐसी वस्तु जो ना जाने बिना मुँह और जीभ के भी विभिन्न स्वर निकाल सकता हैं। संगीत प्रस्तुत कर सकता है और हर बात जानता है। डिब्बे की शक्ल का है फिर भी आवाज़ मनुष्यों की तरह निकाल सकता है। हे प्रभु सब तेरी माया है। टीवी और इन्टरनेट भी ऐसे ही अन्य चमत्कार हो सकते हैं।

लेकिन तरंगों का अध्ययन कर चुके एक छात्र के लिए यह चमत्कार नहीं है। चुम्बकीय ध्रुवों के बीच तेजी से तारों की एक कुँडली घुमाई जाए तो एक ऐसा अनुभव पैदा हो जाता है जो दिखाई तो नहीं पड़ता परन्तु जिसके परिणाम दिखाई तो नहीं पड़ते परन्तु जिन्हें शरीर पर बहुत भीषणता से अनुभव कहते हैं। एक सामान्य जन के लिए यह ईश्वरीय प्रकोप से लेकर पिशाच साधना तक कुछ भी हो सकता है परन्तु भौतिक विज्ञान के छात्र के लिए यह मात्र एक विद्युतीय उत्प्रेरण है। वह रोज़ ऐसी घटनाएँ देखता पढ़ता है।

समझो कि यह देखने वाले की आँख में होता है। इस आँख से बाहर इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह भ्रम नहीं है जहाँ कुछ का कुछ दिखाई पड़ता हो। यह भ्रम से भिन्न एक अन्य अवस्था है। भ्रम का सम्बन्ध बाहर की वस्तु से होता है। चमत्कार का सम्बन्ध आपकी समझ से होता है। यही भ्रम और चमत्कार में अन्तर है।

प्रतिदिन चमत्कार सुनने में आते हैं। अमुक व्यक्ति के साथ चमत्कार घटित हुआ। उसने अमुक देवी या देवता या गुरू के परचे बँटवाए तो उसे अमुक अमुक लाभ प्राप्त हुए। आप भी बँटवाएँ और लाभ पाएँ। यहाँ मानवीय मस्तिष्क की बनावट का वाणिज्यिक उपयोग किया जा रहा है।
पहली तो बात यह कि इस चमत्कार प्रणाली को लाभ के साथ जोड़ दिया गया है। लाभ – जिसके लिए बहुत लोग बहुत कुछ कर सकते हैं वह भी बिना ज्यादा कुछ सोचे समझे हुए ही। जो अधिक खतरा उठा सकने वाले लोग हैं वे लाभ के लिए उन कामों को भी कर देते हैं जिन्हें सुसंस्कृत समाज स्वीकार नहीं करता और ऐसे अ-सुसँस्कृत कामों को अपराध भी कहा जाता है। तो जो अधिक दुस्साहसी लोग होते हैं वे लाभ के लिए अपराध भी कर देते हैं। लाभ में एक प्रेरक शक्ति हमेशा होती है। जो लोग उतने दुस्साहसी नहीं होते हैं वे अपराध तो नहीं करते हैं परन्तु ऐसे काम जरूर कर सकते हैं जिन्हें करने के लिये उनके पास पर्याप्त कारण नहीं भी होते हैं। यानी कि ये लोग यदि लाभ मिलता हो तो ऐसे काम भी कर सकते हैं जिन्हें अतार्किक कहा जाता है। ये भक्त लोग ऐसे ही वर्ग के सदस्य होते हैं। ये लाभ पाने के लिये तार्किक – अतार्किक कुछ भी कर सकते हैं।

दूसरी बात यह कि लाभ को एक उच्चतर प्रकार दिया गया है – दैवीय लाभ। यह भौतिक लाभ की अपेक्ष अधिक आकर्षक होता है। इसे पाने वाले के मन में एक उच्चता और विशिष्टता का एहसास होता है। तो यहाँ भी मानसिक पृष्ठभूमि तैयार कर दी जाती है कि लाभ मिलेगा और वह भी दैवीय लाभ। बस करना यह है कि एक सामान्य सा दिखने वाला काम कर दीजिए। और लोग काम कर डालते हैं। कई बार इसमें नकार भी डाल दिया जाता है। जिन लोगों ने परचे नहीं बँटवाए उनका अमुक अमुक नुकसान हो गया तो लोग लाभ पाने और नुकसान ना पाने के लिए अधिक उद्यत हो उठते हैं। यही इसका चमत्कार शास्त्र है।

क्योंकि इसके लिए एक अतार्किक विधि अपनाई गयी थी इसलिए उस विधि के परिणामों की मनमानी व्याख्या भी की जा सकती है। यदि कोई लाभ सामान्यतः भी हुआ हो तो उसे इस चमत्कार माला में पिरोया जा सकता है और अगर नहीं हुआ है तो बहुत आराम से ऐसी व्याख्या दी जा सकती है जिसमें दोष उस व्यक्ति का ही होता है जिसे लाभ नहीं मिला – जैसे कि उसकी नीयत में खोट हो सकता है या किसी पुराने कर्म का कोई फल हो सकता है।

सामान्य भाषा में कहें तो सब बकवास यहाँ चमत्कार के नाम पर की जा सकती है। इस तरह जो परिदृश्य अतर्क से भरा है वही चमत्कार से पूर्ण है। यह अतर्क ही चमत्कार है।

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